शनिवार, 5 मार्च 2011

.कोई कपड़े बदल रहा हैं।

शहर आज एक गती मे हैं। वो पल भी ठरना नही चाहता । ये हरदम एक उन्नत सवेरे की तलाश मे रहता है।
चटख भरी दैनिकता लिये ।किसी न किसी की प्रतीक्षा में रहती टिकी आँखें।
चीजों का जैसे कोई आंचल उनके सामने लहराता है। शहर का हर चिन्ह अपनी ओर खिंचता हैं।
रात उंजाले को सुलाती हैं। और फिर भोर होते ही कही अदृश्य हो जाती है।


राकेश..

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