बेताल चालीसा
मंगलवार, 26 अप्रैल 2011
शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011
सोमवार, 7 मार्च 2011
धुंदली रेखाएं
शहर आज क्या हैं। जिस मे शमिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है।
जो चूम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खीचती है। उसकी हर सूबह उन्नत वर्तमान के परीवेश मे होती है।
कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता हैं ।
किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा मे धुंदली रेखाएं माहौल मे विराजमान रहती है।
मन की चैष्टाये धूप की तरह अस्तीव मे बिखर जाती है।
कोई शयद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वारूप भीतर से बहार का निकास करता है।
पूर्ण क्षमताओ टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती है।
राकेश...
जो चूम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खीचती है। उसकी हर सूबह उन्नत वर्तमान के परीवेश मे होती है।
कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता हैं ।
किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा मे धुंदली रेखाएं माहौल मे विराजमान रहती है।
मन की चैष्टाये धूप की तरह अस्तीव मे बिखर जाती है।
कोई शयद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वारूप भीतर से बहार का निकास करता है।
पूर्ण क्षमताओ टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती है।
राकेश...
शनिवार, 5 मार्च 2011
.कोई कपड़े बदल रहा हैं।
शहर आज एक गती मे हैं। वो पल भी ठरना नही चाहता । ये हरदम एक उन्नत सवेरे की तलाश मे रहता है।
चटख भरी दैनिकता लिये ।किसी न किसी की प्रतीक्षा में रहती टिकी आँखें।
चीजों का जैसे कोई आंचल उनके सामने लहराता है। शहर का हर चिन्ह अपनी ओर खिंचता हैं।
रात उंजाले को सुलाती हैं। और फिर भोर होते ही कही अदृश्य हो जाती है।
राकेश..
चटख भरी दैनिकता लिये ।किसी न किसी की प्रतीक्षा में रहती टिकी आँखें।
चीजों का जैसे कोई आंचल उनके सामने लहराता है। शहर का हर चिन्ह अपनी ओर खिंचता हैं।
रात उंजाले को सुलाती हैं। और फिर भोर होते ही कही अदृश्य हो जाती है।
राकेश..
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