सोमवार, 7 मार्च 2011

धुंदली रेखाएं

शहर आज क्या हैं। जिस मे शमिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है।
जो चूम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खीचती है। उसकी हर सूबह उन्नत वर्तमान के परीवेश मे होती है।
कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता हैं ।
किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा मे धुंदली रेखाएं माहौल मे विराजमान रहती है।
मन की चैष्टाये धूप की तरह अस्तीव मे बिखर जाती है।
कोई शयद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वारूप भीतर से बहार का निकास करता है।
पूर्ण क्षमताओ टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती है।





राकेश...

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