सोमवार, 7 मार्च 2011

धुंदली रेखाएं

शहर आज क्या हैं। जिस मे शमिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है।
जो चूम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खीचती है। उसकी हर सूबह उन्नत वर्तमान के परीवेश मे होती है।
कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता हैं ।
किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा मे धुंदली रेखाएं माहौल मे विराजमान रहती है।
मन की चैष्टाये धूप की तरह अस्तीव मे बिखर जाती है।
कोई शयद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वारूप भीतर से बहार का निकास करता है।
पूर्ण क्षमताओ टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती है।





राकेश...

शनिवार, 5 मार्च 2011

.कोई कपड़े बदल रहा हैं।

शहर आज एक गती मे हैं। वो पल भी ठरना नही चाहता । ये हरदम एक उन्नत सवेरे की तलाश मे रहता है।
चटख भरी दैनिकता लिये ।किसी न किसी की प्रतीक्षा में रहती टिकी आँखें।
चीजों का जैसे कोई आंचल उनके सामने लहराता है। शहर का हर चिन्ह अपनी ओर खिंचता हैं।
रात उंजाले को सुलाती हैं। और फिर भोर होते ही कही अदृश्य हो जाती है।


राकेश..

गुरुवार, 3 मार्च 2011

आस-पास क्या है ?

कुछ मिलने की चाहत क्या हैं? कुछ पाने की लालसा क्या हैं? जो लें आती है ,हमें कई रफ्तारों के बीच ।
जिस मे हमारी भी मोजूदगीं होती है।
पहले हम उस जगह को समझने के लिये समय को अपने लिये रोक लेते है फिर समझ आने के बाद उस रफ्तार में गीरजाते है।
ये क्या है? क्या ये कोई प्रणाली है या जाँच ? या फिर कोई प्रयोगनात्मक समझ है। या अपने कुछ समय को निर्धारीत कर के एक फिक्स सफ़र तय करने का अनूभव ?
क्या अनूभव ऐसा होता है ?

हमारे आस-पास क्या है ? टेडी-मेडी सपाट सतहें। उनके साथ बने कुछ कोने जो किसी न किसी से जूड़े रहते है।
ये कोने स्थिर होकर भी स्थिर नही होतें। किसी याद या ठहरे विचार को हरकत मे ले जाते हैं।

ये बहुत दूर भीं ले जाते है और आँखो के सामने एक जिवनी का विवरण भी कर जाते है।
हम अपनी याद का कोई महफूज पल ,दिन , या सफ़र में वापस किसी कोने और अपसर के दोरान जी पाते है।
जिस के साथ जिवन के आने वाले कल की सूचना मिल जाती है।
जिस को सून कर हैरानी नही होने चाहियें। क्यो के जो हो रहा हैं उसका कारण है। इस के अलावा हम भी किसी वजह या बेवजह से जूड़े होने के बाद भी हम खूद कहाँ है ये देखने की कोशिश करते है?
हम जहाँ है हम वही है और इसके साथ जो हो रहा है वो कसौटी है,परख हो सकती है।एक बनी-बनाई सिच्यूवेशन हो सकती है।
जिस में शरीर किसी उर्जा की तरह काम करता है। वो थकता है मगर फिर किसी गती या फोर्स को लेकर श्रम मे फिर से लग जाता है।



राकेश...

हमारे देखने का नज़रीया क्या हैं ?

जो रोज़ मिलता है, और मिलकर कही खो जाता है। उसे कैसे अपने रूटिन में देखा जाये।
हमारी कल्पना हमारे साथ चलती है । बस जगह बदलने से हम उस कल्पना का पुर्नआभास नही कर पाते।
तो कैसे करे ये पुर्नआभास?
कैसे देख सकते है उस द्विश्य को जो हमारे सोचने की वजह है। क्या उसका फैलाव है ? या हमारे देखने का नज़रीया है बस ?
जिसके माध्यम से हमारे सामने बनी कोई रूपरेखा दिलो-दिंमाग पर एक अदा छोड़ जाती है।


राकेश...