जो रोज़ मिलता है, और मिलकर कही खो जाता है। उसे कैसे अपने रूटिन में देखा जाये।
हमारी कल्पना हमारे साथ चलती है । बस जगह बदलने से हम उस कल्पना का पुर्नआभास नही कर पाते।
तो कैसे करे ये पुर्नआभास?
कैसे देख सकते है उस द्विश्य को जो हमारे सोचने की वजह है। क्या उसका फैलाव है ? या हमारे देखने का नज़रीया है बस ?
जिसके माध्यम से हमारे सामने बनी कोई रूपरेखा दिलो-दिंमाग पर एक अदा छोड़ जाती है।
राकेश...
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