शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

लोहे का बोर्ड



ओखला, दक्षिण दिल्ली जिला में पुराने गांव के चारों ओर है, हालांकि यह औद्योगिक क्षेत्र या ओखला औद्योगिक एस्टेट, साउथ दिल्ली में नई दिल्ली के औद्योगिक उपनगर और मुख्य रूप से तीन चरणों में विभाजित के रूप में जाना जाता है।


वहां एक श्याम :

लोहे का बडा गेट जिस के पास एक सिक्योरिटी गार्ड डन्डा लेकर खडा है।
दोनो तरफ टूटी सड़क पर पानी फैला है।

लोहे का बोर्ड उसपर मोटे अक्षरो मे लिखा था, श्री दयानंद टक्कर द्वार ।"
बडे मजे मे एक-दूसरे से बतीयाते हुये लेबर खाना खा रहे थे।
उन्हे देख कर लग रहा था की सब एक साथ आये हो और एक ही स्थान के हों।
कोई हंस ता तो कोई अपने सूपरवाईजर का मखौल बना रहे थे।
वो सब फैक्ट्री मे काम करने वाले मजदूर थे।
मगर वे ऐसै बाते करते जैसे की वे आपस मेएक-दूसरे को ज़हनी तरीके से भी जानते हो। बेशक श्रम जो किसी को किसी से जोड़ता है उसमे से अंजान तो कोई हो ही नही सकता ।


धूप में सूखाने के लिये ताजे माल के बने गत्ते के डिब्बे रखे हुये थें।
उनसे अभी भी किसी गौद जैसे पदार्थ की बूं आ रही थी।
हर किसी फेक्ट्री या गोदाम ,ट्रंसापोर्ट कंम्पनी के सामने नोटीस लगा था।
“बाल श्रम कानून अपराध है"
मशीनो की तेज और धीमी आवाजें लगातार आ रही थी।
अचानक आँखे किसी को खोजती हुई खिडकी की तरफ रोकी , जहां से चमकती रोश्नी नजर आ रही थी।
मशीन के पास खडा लेबर मशीन के खाचों कागज लगा रहा था। गर्मी के मारे वो जगह उबल रही थी।
अन्दर से मशीन के चलने की आवाज लगातार आ रही थी।

50 गज बने चौडे कमरे मे दो बडी मशीने और आदमी थे।
जो मोबाईल पर गाने सून कर मशीन के साथ खूद को व्यास्तता मे चला रहे थे ताकी गानो से उनका मनकिसी ओर जगह उड़ सकें ।

दाये तरफ जहाँ पर कोल्ड्रीक की बहुत सारी कैट मे बोतले रखी थी। जिनको पानी मे धोने के लिये रखा जा रहा है।
वहा चार लोग बोतलो को उठाकर अन्दर ले जाते ।
शोर चारो तरफ से टकरा रहा था।
मशीने हर प्रकार कामगारी मे लगीं थी ।
ये कागज काटने और , बोक्स बनाने वाली मशीने थी ।
प्रटींग के कैमीकल और अन्य माल को एक खास रूप देने का काम करने वो लेबर काम की दूनिया को पल भर को भी भूल जाते तो लगता की उनके करीब कोई प्रकाश बड़ रहा हैं
काम की दुनिया मे ये आनोखा अहसास उन के लिये किसी स्वार्ग से कम नही था। उस के बस स्टाप के ऊपर एक मानव पुतला रखा है जिस का मूंहु सड़क के बिचो-बिच है।
वहा से काम से निजात पाते लेबर ,उसे देखते हुये जाते है।
उसका सारा समय उस जगह मे स्थिरता मे बितता है।
वो ठहरा हुंआ है मगर समय वास्तव मे चल रहा है । इन दोनों हालात के बिच मे यहां से गुजरते लेबर अपने को सोचते हुये चले जाते है।
और फिर दूसरे दिन वापस अपने दैनिक जीवन मे लोटते है।


राकेश

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