शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

दैनिक


राकेश

रात




राकेश

पानी


राकेश

समय का रूप

स्थिर परछाईया भी कुछ कहती हैं।



राकेश

सोमवार, 7 मार्च 2011

धुंदली रेखाएं

शहर आज क्या हैं। जिस मे शमिल होते ही चटख भरी दिनचर्या से हमारी मुलाकात होती है।
जो चूम्बक की तरह हमें अपनी तरफ खीचती है। उसकी हर सूबह उन्नत वर्तमान के परीवेश मे होती है।
कई चीजों का आँचल आँखो के सामने होता हैं ।
किसी न किसी श्रोता की प्रतीक्षा मे धुंदली रेखाएं माहौल मे विराजमान रहती है।
मन की चैष्टाये धूप की तरह अस्तीव मे बिखर जाती है।
कोई शयद धूमिल सा अधूरापन लिये रास्तों पर चलता है। उसकी जिन्दगीं मे बसा किसी का स्वारूप भीतर से बहार का निकास करता है।
पूर्ण क्षमताओ टकराती जिंदगानी नज़र से नज़र मिला कर बातें करती है।





राकेश...

शनिवार, 5 मार्च 2011

.कोई कपड़े बदल रहा हैं।

शहर आज एक गती मे हैं। वो पल भी ठरना नही चाहता । ये हरदम एक उन्नत सवेरे की तलाश मे रहता है।
चटख भरी दैनिकता लिये ।किसी न किसी की प्रतीक्षा में रहती टिकी आँखें।
चीजों का जैसे कोई आंचल उनके सामने लहराता है। शहर का हर चिन्ह अपनी ओर खिंचता हैं।
रात उंजाले को सुलाती हैं। और फिर भोर होते ही कही अदृश्य हो जाती है।


राकेश..

गुरुवार, 3 मार्च 2011

आस-पास क्या है ?

कुछ मिलने की चाहत क्या हैं? कुछ पाने की लालसा क्या हैं? जो लें आती है ,हमें कई रफ्तारों के बीच ।
जिस मे हमारी भी मोजूदगीं होती है।
पहले हम उस जगह को समझने के लिये समय को अपने लिये रोक लेते है फिर समझ आने के बाद उस रफ्तार में गीरजाते है।
ये क्या है? क्या ये कोई प्रणाली है या जाँच ? या फिर कोई प्रयोगनात्मक समझ है। या अपने कुछ समय को निर्धारीत कर के एक फिक्स सफ़र तय करने का अनूभव ?
क्या अनूभव ऐसा होता है ?

हमारे आस-पास क्या है ? टेडी-मेडी सपाट सतहें। उनके साथ बने कुछ कोने जो किसी न किसी से जूड़े रहते है।
ये कोने स्थिर होकर भी स्थिर नही होतें। किसी याद या ठहरे विचार को हरकत मे ले जाते हैं।

ये बहुत दूर भीं ले जाते है और आँखो के सामने एक जिवनी का विवरण भी कर जाते है।
हम अपनी याद का कोई महफूज पल ,दिन , या सफ़र में वापस किसी कोने और अपसर के दोरान जी पाते है।
जिस के साथ जिवन के आने वाले कल की सूचना मिल जाती है।
जिस को सून कर हैरानी नही होने चाहियें। क्यो के जो हो रहा हैं उसका कारण है। इस के अलावा हम भी किसी वजह या बेवजह से जूड़े होने के बाद भी हम खूद कहाँ है ये देखने की कोशिश करते है?
हम जहाँ है हम वही है और इसके साथ जो हो रहा है वो कसौटी है,परख हो सकती है।एक बनी-बनाई सिच्यूवेशन हो सकती है।
जिस में शरीर किसी उर्जा की तरह काम करता है। वो थकता है मगर फिर किसी गती या फोर्स को लेकर श्रम मे फिर से लग जाता है।



राकेश...

हमारे देखने का नज़रीया क्या हैं ?

जो रोज़ मिलता है, और मिलकर कही खो जाता है। उसे कैसे अपने रूटिन में देखा जाये।
हमारी कल्पना हमारे साथ चलती है । बस जगह बदलने से हम उस कल्पना का पुर्नआभास नही कर पाते।
तो कैसे करे ये पुर्नआभास?
कैसे देख सकते है उस द्विश्य को जो हमारे सोचने की वजह है। क्या उसका फैलाव है ? या हमारे देखने का नज़रीया है बस ?
जिसके माध्यम से हमारे सामने बनी कोई रूपरेखा दिलो-दिंमाग पर एक अदा छोड़ जाती है।


राकेश...

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

काल्पनीक शख्स ?

विराट सिनेमा का मैदान और शुक्रबाजार



राकेश

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

लोहे का बोर्ड



ओखला, दक्षिण दिल्ली जिला में पुराने गांव के चारों ओर है, हालांकि यह औद्योगिक क्षेत्र या ओखला औद्योगिक एस्टेट, साउथ दिल्ली में नई दिल्ली के औद्योगिक उपनगर और मुख्य रूप से तीन चरणों में विभाजित के रूप में जाना जाता है।


वहां एक श्याम :

लोहे का बडा गेट जिस के पास एक सिक्योरिटी गार्ड डन्डा लेकर खडा है।
दोनो तरफ टूटी सड़क पर पानी फैला है।

लोहे का बोर्ड उसपर मोटे अक्षरो मे लिखा था, श्री दयानंद टक्कर द्वार ।"
बडे मजे मे एक-दूसरे से बतीयाते हुये लेबर खाना खा रहे थे।
उन्हे देख कर लग रहा था की सब एक साथ आये हो और एक ही स्थान के हों।
कोई हंस ता तो कोई अपने सूपरवाईजर का मखौल बना रहे थे।
वो सब फैक्ट्री मे काम करने वाले मजदूर थे।
मगर वे ऐसै बाते करते जैसे की वे आपस मेएक-दूसरे को ज़हनी तरीके से भी जानते हो। बेशक श्रम जो किसी को किसी से जोड़ता है उसमे से अंजान तो कोई हो ही नही सकता ।


धूप में सूखाने के लिये ताजे माल के बने गत्ते के डिब्बे रखे हुये थें।
उनसे अभी भी किसी गौद जैसे पदार्थ की बूं आ रही थी।
हर किसी फेक्ट्री या गोदाम ,ट्रंसापोर्ट कंम्पनी के सामने नोटीस लगा था।
“बाल श्रम कानून अपराध है"
मशीनो की तेज और धीमी आवाजें लगातार आ रही थी।
अचानक आँखे किसी को खोजती हुई खिडकी की तरफ रोकी , जहां से चमकती रोश्नी नजर आ रही थी।
मशीन के पास खडा लेबर मशीन के खाचों कागज लगा रहा था। गर्मी के मारे वो जगह उबल रही थी।
अन्दर से मशीन के चलने की आवाज लगातार आ रही थी।

50 गज बने चौडे कमरे मे दो बडी मशीने और आदमी थे।
जो मोबाईल पर गाने सून कर मशीन के साथ खूद को व्यास्तता मे चला रहे थे ताकी गानो से उनका मनकिसी ओर जगह उड़ सकें ।

दाये तरफ जहाँ पर कोल्ड्रीक की बहुत सारी कैट मे बोतले रखी थी। जिनको पानी मे धोने के लिये रखा जा रहा है।
वहा चार लोग बोतलो को उठाकर अन्दर ले जाते ।
शोर चारो तरफ से टकरा रहा था।
मशीने हर प्रकार कामगारी मे लगीं थी ।
ये कागज काटने और , बोक्स बनाने वाली मशीने थी ।
प्रटींग के कैमीकल और अन्य माल को एक खास रूप देने का काम करने वो लेबर काम की दूनिया को पल भर को भी भूल जाते तो लगता की उनके करीब कोई प्रकाश बड़ रहा हैं
काम की दुनिया मे ये आनोखा अहसास उन के लिये किसी स्वार्ग से कम नही था। उस के बस स्टाप के ऊपर एक मानव पुतला रखा है जिस का मूंहु सड़क के बिचो-बिच है।
वहा से काम से निजात पाते लेबर ,उसे देखते हुये जाते है।
उसका सारा समय उस जगह मे स्थिरता मे बितता है।
वो ठहरा हुंआ है मगर समय वास्तव मे चल रहा है । इन दोनों हालात के बिच मे यहां से गुजरते लेबर अपने को सोचते हुये चले जाते है।
और फिर दूसरे दिन वापस अपने दैनिक जीवन मे लोटते है।


राकेश

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

दैनिक


राकेश

हमारा


राकेश

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दैनिक


राकेश

खेल


राकेश

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

बहार निकलना


भीड़ की कोई शल्क-सूरत नही होती वो किसी फैलेंया बिखरे घेरे के जैसी होती है।
जिवन मैं जिते हुये।
भीड़ हमे उकसाती भी है। अपनी तरफ खिचने के लिये
इसके आ-पास ही मंडराना बेहतर होता है इसमे घूस जाने पर हम उल्झानों मे फंस जाते है।


राकेश

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

बैरागी बेताल

दिनांक :10/2/2011
समय :2:00 am



घूम रहा रास्तों पे बनके कोई नक़्काल,
रफ्ता-रफ्ता लेकर आँखो मे निंडर मशाल
गंगन की हवाएं पुंछती सवाल
कहां चला ऐ बैरागी बेताल


कण-कण खोजा
छिप कर मौजा कर रहा बेताल
शक्ल-सूरत न कोई इसकी
ये तो मूखौटों का इक सवाल

इस की कोई परछाई नही
रोशनी इसे कभी भायी नही
सामने आ जाता शरीर को निकाल
बेताल ,बेताल ,बेताल


न रस मे न किसी के बस
न जम़ीन पे न अम्बर में
न गूण मे न अवगूण में
इसकी छाया हैं कमाल

वो है बेताल ,बेताल ,बेताल


राकेश

चेहरों का इन्तजार

दिनांक :4/1/2011
समय :24:00 pm


पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन को छोड़ कर गाडी कान पुर के लिये रवाना हुंई । काम्पार्टमेन्ट मे लोग बूरी तरह ठूसे हुये थें। कुछ निचे बैठे तो कुछ अपनी सीट पर।
चन्द पलों के लिये सब ने रहात भरी सांस ली उसके साथ ढ़ब्बे की शान्ती को भंग किया ।
गूफ्तगू का सिलसिला शूरू हुंआ । ट्रेन की रफतार बड़ जैसे बिजली का करंट छा गया हो।
शहर को छोड़ कर ट्रेन आगे निकल गई। अब सब वैसे नही थे जैसें कुछ देर पहलें लग रहे थे।
चेहरों का इन्तजार हैं।
सब एक तरह की वेटिंग मे हैं।

राकेश

शहर की उँची बिल्डीग

दिनांक :2/1/2011
समय :2:00 am


मार्किट मे जानें के लिये अपने काम की कोटेशन बना रखनी चाहिये । काम करने के दाम ।
उसके लिये वाइट कमीज और नया पैन्ट ब्लैक सूज होने जरूरी हैं ।
लोग काम से ज्यादा शक्ल और कपड़ो पर फोकस करते हैं ।
दिल्ली की लोकल मार्किटों में कई छौटी बड़ी कम्पनीयां है ।
जिन मे बहुत तरह का काम निकलता हैं । कही तो टाका फिट होगा।
खोटा सिक्का चल जायें , तो इन शहर की उँची बिल्डीगों की भीड़ मे अपने भी पांव जम जायें ।
क्या कहें जम़ीन बहुत गहरी हैं। किसी जड़ से टकरा जायें।

राकेश..

रास्ते की शिनाख्त

चाँद के उपर से होकर गुजरतें जैसे किसी के कदमो के निशान । उपर से निचे आते हुंये।
बल्फ चमकते है, तो लगता है कई जुगनूओ की भीड़ आ रही है। झून्ड नीचे आ गया हों। चारो तरफ हंसी और मजाकों की आवाज आती। ये महफिल किसी ओर की है। मगर हम भी दर्द को दबाने मे कामयाब हो जातें । ये चाँदनी रात नही थी खूशीयों का रेला भी नही था। जैसे हमारी तरफ चला आती कोई धूंधली छवि हो। कही जाना है ये भी भूल जाते बस याद रेहता है ,तो बस अपने रास्ते की शिनाख्त

दिनांक :25/12/2010
समय :2:00 am



रात की पार्टीयों में , श्यामो में रंगीन होती है उम्र ।जहाँ पर किस्से संगीन होते है।
जिन्दगी के लम्हे गहरें होते हैं।

कत्ले आम होते जिवन के सभी दूख । बेचैनी का पतन" हमजोली का एक बदन । दो-तीन टोलियो मे बंट जया करते जिवन के दो-चार पाल । हर टोली मे काम के बहाने इस जश्न मे डूब जाते है सब। कर महफिल मे उतरना ही कुछ ओर होता है।


राकेश

निशान बने हुये ।

चारो तरफ फर्नीचर टूट पड़ा था, और फर्श पे चाय फेली थी। रात की जली सिगरटो के फिल्टर एस्ट्रे मे पडे थे।
पानी के ग्लास पे उगलीयो के निशान बने हुये थे।
फर्श पे कई बार चलने -फिरने के निशान ।
ऐसा लगता है यहा से कई लोग हो कर गुजरे है।
और सामने वाली खिड़की से बहार चले गये है।
ओह इसका मतलब कई लोगो ने मिल कर ये काम किया ।

दिनांक : 22/12/10
समय :4:35pm


वीरू ने अपने जेब से रूमाल ग्लास को उठा कर देखा । और बारीकी से देख कर बोला ।
“ लगता है यहां इस लेडीस ने इस ग्लास मे कुछ पिया था। मगर इस मे है क्या?
वो ग्लास को सूंघने लगा ,उसकी साथी निलम हाथ मे दस्ताने पहने उस जगह के आस-पास की चीजो के सेम्पल ले रही थी।
वीरू मूझे ये लगता है की ये मडर है।
वो बूलन्द आवाज मे बोली ।
तूम्हे नही लगता की जो लडकी सूबह सडक के चौराहे पर पड़ी मिली उसका सम्बंध इस केस से हैं।
नही शायद ऐसा नही और ऐसा होना भी नही चाहिये।
क्यो की बिना किसी सबूत गवाह के ये साबित नही होता।
वीरू ने निलोफर को इशारा किया ,जरा इन बल्ब के टुटे टूकडो को लो
कमरे मे कटी तारे है इन्हे अलग हटाओ।
कितने बजे की ये वारदात हो सकती है ।
बॉडी देख कर पता चलता है की रात से ही वो मरी पडी थी।
किसी ने उस पर ध्यान नही दिया ।
लेकिन वो-वो थी कौन ?और कहां से आई थी।
निलम सवालों की बोछार करने लगी ।
मै भी तो यही सोच रहा हुँ।




उसदिन दोनो इस बात की खोज मे थे की आखिर यहा क्या हुआ है?
अलमारी के साथ वाली दिवार पे खून के दाग अभी ज्यादा नही सूखे थे।
घडी बन्द थी ,जरा घड़ी लकार दिखाओ वीरू ने आदेश दिया ।
एड़जेस्ट फेन कम रफ्तार मे था।
घडी खौल कर देखे तो लगा की ,कोई कुछ देर पहले ही यहाँ से हो कर गया है।
कौन









राकेश

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011